महिला क्रिकेट विश्वकप: खेल खिलाडियों का क्षेत्र है, अपराधियों से दूर करें
# शांता रंगास्वामी के आते ही महिला क्रिकेट को चारों ओर चौंधिया डाला, ब्रजभूषण शरण सिंह मूल धंधे तक सीमित रहते तो महिला कुश्ती यूं न कांखती
कुमार सौवीर
स्वतंत्र पत्रकार
तहलका 24×7
भारत के दो खेल महिला क्रिकेट और महिला कुश्ती आज दो बिल्कुल अलग रास्तों पर खड़े हैं। एक में महिला नेतृत्व ने झंडा गाड़ा, तो दूसरे में पुरुष वर्चस्व ने खेल की साख मिट्टी में मिला दी। फर्क सिर्फ इतना है कि क्रिकेट ने विशेषज्ञता को सम्मान दिया, जबकि कुश्ती ने राजनीति को गले लगा लिया और नतीजा साफ है! क्रिकेट ने उड़ान भरी, कुश्ती ने पटका खाया।

इंडियन क्रिकेटर्स एसोसिएशन (भारतीय क्रिकेट संघ) का हालिया चुनाव खेल प्रशासन में नई हवा लेकर आया। पूर्व भारतीय महिला कप्तान शांता रंगस्वामी अब एसोसिएशन की अध्यक्ष हैं। मतलब, पहली बार क्रिकेट बोर्ड की कमान किसी ऐसी खिलाड़ी के हाथ में है, जिसने खेल को किताबों में नहीं बल्कि मैदान की मिट्टी में सीखा है। उनके साथ ज्योति थट्टे व शुभांगी कुलकर्णी जैसी महिलाओं को प्रमुख प्रतिनिधित्व मिला।भारतीय क्रिकेट संघ ने प्रेस विज्ञप्ति में इसे “ऐतिहासिक मोड़” कहा, और सही भी कहा, क्योंकि इस बार बदलाव केवल चेहरों का नहीं, नजरिए का था।

शांता रंगस्वामी क्रिकेट की भाषा जानती हैं, खिलाड़ी की धड़कन पहचानती हैं और मैदान के मनोविज्ञान को समझती हैं। उनके नेतृत्व में महिला क्रिकेट ने आत्मविश्वास पाया, प्रदर्शन निखरा और खेल की छवि नई चमक से भर गई। यह साबित करता है कि जब कप्तान मैदान से आता है, तो खेल की दिशा भी सही रहती है। योग्यता, अनुभव, संवेदनशीलता तीनों का संगम ही सच्चा नेतृत्व बनाता है।अब ज़रा कुश्ती की तरफ नज़र डालिए। यहां खेल कम, राजनीति का अखाड़ा ज़्यादा दिखता है।

महिला कुश्ती की बदनामी का कारण ब्रजभूषण शरण सिंह जैसे नेता बने, जिनकी महारत कुश्ती में नहीं, सियासत और सत्ता में रही। यौन शोषण के आरोप, सड़क पर प्रदर्शन, अदालत की लड़ाई इन सबने खेल को शर्मनाक मोड़ पर ला खड़ा किया। महिला पहलवानों ने मेडल फेंक दिए, लेकिन नेता अपनी कुर्सी से चिपके रहे। ब्रजभूषण में ताकत जरूर थी, मगर गलत दिशा में। अगर वही ऊर्जा राजनीति में लगाते तो शायद तालियां बजतीं, लेकिन खेल प्रशासन में उन्होंने बस फाउल पर फाउल किया।

ब्रजभूषण पर महिला कुश्ती पहलवानों से बलात्कार के लिए उकसाना, प्रोत्साहित करना, सहवास के लिए सुविधा मांगना और हत्या आदि गम्भीर आरोप हैं। खबर है कि उन पर दाउद के साथ टाडा जैसे मामले भी हैं। लेकिन ब्रजभूषण शरण सिंह उसे द्वेष दुष्प्रचार कहते हैं और बोलते हैं कि अगर मामले साबित हो जाए, तो वे फांसी में लटक जाएंगे। लेकिन कैसे फांसी पर लटकेंगे, जब वे अपने मामले दबाने के लिए जी-तोड़ कोशिशे कर रहे हैं। अगर ऐसा हो भी तो, जिस व्यक्त पर ऐसे संगीन अपराध चस्पां हो चुके हों, उसको चाहिए कि वह उस क्षेत्र को खुद ही छोड दे।

कुछ भी हो, यह दोनों कहानियां एक ही सबक सिखाती हैं कि नेतृत्व बिना विषय विशेषज्ञता के एक नुस्खा है असफलता का।भारतीय क्रिकेट संघ में जब शांता जैसी अनुभवी खिलाड़ी आईं तो क्रिकेट ऊंचा उठा। कुश्ती में जब सत्ता ने अखाड़े में कदम रखा तो खेल नीचे गिर गया। सोचिए, अगर किसी डॉक्टर को पुष्पक-विमान चलाने को कह दिया जाए तो नतीजा वही होगा जो कुश्ती में हुआ। दुर्घटना तय। खेल प्रशासन में सबसे जरुरी है सही आदमी सही जगह।

खिलाड़ियों के संगठन का नेतृत्व खिलाड़ियों के हाथ में होना चाहिए, न कि नेताओं, रसूखदारों या डिग्रीधारियों के हाथ में। खेल को राजनीति से नहीं, अनुभव और समझ से चलाया जाता है। भारतीय क्रिकेट संघ ने यह दिखा दिया कि जब नेतृत्व मैदान से आता है तो नतीजे आसमान तक जाते हैं। अब बाकी खेल संघों की बारी है। वे चाहें तो क्रिकेट जैसी उड़ान भर सकते हैं, या कुश्ती जैसी गिरावट को परंपरा बना सकते हैं। फैसला उनके हाथ में है कि वे खेल चलाना चाहते हैं या खेल दिखाना।








