आस्था आज भी मूल्यवान
स्पेशल डेस्क।
रविशंकर वर्मा
तहलका 24×7
हाल ही में आई एक फिल्म ‘आदिपुरुष’ के स्तरहीन संवादों ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या केवल हल्के मनोरंजन के लिए आस्था से खिलवाड़ किया जा सकता है? फिल्म में प्रयोग की गई भाषा पर विवाद का वातावरण बनने पर पहले तो इसके निर्माता समेत जिम्मेदारों ने आना-कानी करके अपना बचाव करते रहे, फिर उन्होंने कहना शुरू किया कि फिल्म ‘आदिपुरुष’ रामायण से प्रेरित अवश्य है, लेकिन रामायण पर आधारित नहीं है।

इसके बाद भी विवाद नहीं थमा तो लेखक ने विवादित संवादों में संशोधन करने की घोषणा कर दी। देश भर में कई धार्मिक संगठनों ने सड़कों पर उतर कर ‘आदिपुरुष’ का विरोध शुरु कर दिया। आपत्तिजनक संवाद लेखकों को उनकी ही भाषा में धमकियां भी दी गई। इन सबके चलते मुंबई पुलिस द्वारा फिल्म के लेखक और निर्माता को सुरक्षा भी प्रदान की गई। इसी दरमियान पड़ोसी देश नेपाल से भी इस फिल्म के विरोध और इसका प्रदर्शन रोकने की बातें सामने आई।

इसका संदेश साफ है कि भारतीय समाज को धर्म और आस्था के साथ किसी तरह का खिलवाड़ मंजूर नहीं है। समाज केवल सभ्य, धार्मिक फिल्मों या धारावाहिकों को देखना पसंद करता है। उन्हें स्वीकार करता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रामानंद सागर निर्मित धारावाहिक ‘रामायण’ और बीआर चोपड़ा निर्मित धारावाहिक ‘महाभारत’ है। जब दूरदर्शन पर इनका प्रसारण होता था तो सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था। पूर्व में ‘जय संतोषी मां’ और ‘संपूर्ण रामायण’ जैसी अनेक धार्मिक फिल्में भी प्रदर्शित हुईं। जिन्हें देखने के लिए लोग चप्पल-जूते उतारकर सिनेमा हाल में प्रवेश करते देखे जाते थे। आस्था आज भी उतनी ही मूल्यवान है। धार्मिक फिल्मों की एक निर्धारित सीमा है। प्रत्येक अभिव्यक्ति की मर्यादा है, जिसका पालन हर एक वर्ग, समुदाय के लिए जरूरी है।

आस्था से खिलवाड़ हमेशा विवादों का कारण बनता है। गुणवत्ता और उत्कर्ष श्रेणी का अपना महत्त्व है, जिसे कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल स्तरहीन धार्मिक फिल्मों का निर्माण करते समय निर्माताओं और लेखकों को हमेशा धार्मिक मान्यताओं और लोगों की आस्था से जुड़े मूल्यों का समुचित आदर और सम्मान करना चाहिए। साथ ही केंद्रीय सेंसर बोर्ड को भी संवेदनशील विषयों पर बनाई गई फिल्मों को प्रसारण की अनुमति देते समय पूरे बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।







