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Saturday, June 22, 2024

राष्ट्रीय ‘राजनीति’ धर्म से निकली तो यूपी में आकर जातिवाद में उलझी

राष्ट्रीय ‘राजनीति’ धर्म से निकली तो यूपी में आकर जातिवाद में उलझी

लखनऊ। 
कैलाश सिंह
सलाहकार सम्पादक 
तहलका 24×7 
                भाजपा के पास छोटे से लेकर बड़े जातीय चेहरे भी यूपी में सपा प्रत्याशियों वाले समीकरण के सामने फेल हो गए। योगी आदित्यनाथ पर पार्टी ने भरोसा किया होता तो शह-मात की बाज़ी में धर्म और अपराध नियंत्रण के सहारे भारी पड़ते बाबा।
2014 में विकास और 2019 में राष्ट्रवाद था बड़ा मुद्दा लेकिन भाजपा बौनी होती गई और बड़ा ब्रांड मोदी बनते गए। मोदी लहर खत्म होने के साथ धर्म नहीं बन पाया मुद्दा और मतदाता महंगाई, बेरोजगारी को छोड़ आरक्षण व सांविधान बचाओ के नाम पर जातियों में बिखर गए।
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राजनीति में कहा जाता है कि “दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचने का रास्ता उत्तर प्रदेश के लखनऊ से होकर गुजरता है।” आज हम इसपर एक दशक पूर्व से लेकर हुए इस आम चुनाव तक बात कर रहे हैं। इस दौरान भाजपा किन मुद्दों पर सवार होकर दिल्ली और लखनऊ पर काबिज हुई और इस बार कैसे फेल हुई तो बैशाखी का सहारा लेना पड़ा।पहली बार मोदी सरकार विकास के मुद्दे पर बनी और दूसरी बार राष्ट्रवाद संबल बना।इन दोनों कार्यकाल में धर्म परोक्ष रूप से मजबूत सहायक बना रहा।
उसके पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विशाल संगठन भाजपा रूपी शरीर में रीढ़ की हड्डी की तरह मौजूद था। लेकिन, इस बार संघ ने किनारा कर लिया था। अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण और विग्रह प्राण प्रतिष्ठा के दौरान तो समूचा देश राम मय नजर आने लगा था, लेकिन जब लोकसभा चुनाव की बेला आई तो आमजन में भीतरखाने जाति समा गई और मोदी की लहर के साथ मुद्दे भी विपक्षी इंडिया गठबंधन के सामने पिटते हुए पलटवार साबित होने लगे।
हालांकि भाजपा के कथित चाणक्य व हाईकमान अमित शाह जातियों के छोटे-छोटे ठेकेदारों को साध लिए थे। लेकिन, उसी दौरान दिल्ली और यूपी के बीच कोल्ड वार भी चल रहा था। यही कारण है कि सीएम योगी आदित्यनाथ की सहमति से उलट ‘शाह’ ने टिकट वितरण की कमान सम्भाली तो विपक्ष में कांग्रेस से गठबंधन में सपा के अखिलेश यादव टिकट वितरण में सामने हो गए। बस यहीं से चुनावी शतरंज में शाह के प्यादे मात खाने लगे और अखिलेश बाजी पलटने में लगे रहे।
शाह जातियों के जागीरदारों के बड़बोलेपन में फंसे रहे और अखिलेश ने प्रत्याशियों को ही जातिगत समीकरण बनाकर गेम को पलट कर नया इतिहास रच दिया। टिकट देने में यदि योगी की सहमति रही होती तो चुनावी परिणाम शायद फिर 14 और 19 के साथ यूपी विस के 17 एवं 22 को दोहराता और 2027 के आने वाले विस चुनाव का रास्ता भी साफ़ रहता।
जातिगत नजरिए से राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो भाजपा के झण्डे के नीचे दशकों बाद ठाकुर और ब्राह्मण वोटर एक साथ दिखने लगे थे, जबकि वैश्य और कायस्थ हमेशा यहीं अडिग रहे। भाजपा की यूपी में अति पिछड़ों की लालच ने उसके कथित सहयोगियों का साथ छोड़कर मतदाता जातीय प्रत्याशियों के साथ खड़े नजर आए। यह अनुमान की बात नहीं, बल्कि चुनाव के दौरान पूर्वी यूपी में खुली आंखों से हर फेज में दिख रहा था।
संजय निषाद, ओपी राजभर के बेटे और अनुप्रिया पटेल के प्रत्याशी पराजित हुए। अमित शाह जिन दोनों डिप्टी सीएम केशव मौर्य और ब्रजेश पाठक को आगे बढ़ाने में लगे रहे वह भी भाजपा प्रत्याशियों राजनाथ सिंह को लखनऊ में खुद की विधानसभा से श्री पाठक ब्राह्मण वोटरों के भाजपा से खिसकने में नहीं रोक पाए। ध्यान रहे की ब्रजेश पाठक बसपा से भाजपा में आये हैं।
पार्टी ने इन्हें यूपी का ब्राह्मण चेहरा बनाकर पेश किया लेकिन यह भी फेल हुए। दूसरे डिप्टी सीएम केशव मौर्य को भी अदर बैकवर्ड का चेहरा बनाकर 2022 में विस चुनाव हारने के बाद भी पद पर बनाए रखा। लेकिन जौनपुर में केशव मौर्य जातिगत गढ़ में सभा करके भी मौर्य वोट को सपा प्रत्याशी की तरफ जाने से रोक नहीं पाए। यह इनकी बानगी है। जाहिर है समूचे उत्तर प्रदेश में इनका क्या असर रहा होगा जिसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राजभर सपा से होकर जब बाहर हुए तो भाजपा को उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर ही रखना चाहिए था। क्योंकि, घोसी उप चुनाव में उनके सहयोगी दारा चौहान को मिली हार ने संकेत दे दिया था कि राजभर का दम निकालकर ही सपा ने इन्हें बाहर का रास्ता दिखाया था। इनके जातीय फार्मूले को अखिलेश समझ गए थे।
भाजपा ने इन्हें पार्टी में लिया तो यह प्रदेश भर में बेसुरा स्पीकर बनकर दिल्ली से यूपी की बात फैलाते रहे, इससे भाजपा के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरने लगा और दिल्ली-लखनऊ के बीच शीत युद्ध भी उजागर होने लगा। पार्टी में तनाव का असर भाजपा के मतदाताओं पर भी पड़ने लगा। रही-सही कसर गुजरात के भाजपा नेता पुरुषोत्तम रुपाला के बयान ने पूरी कर दी।
हालांकि उन्होंने माफ़ी मांग ली और अपनी सीट से चुनाव भी जीत गए लेकिन उस बयान की चिंगारी राजस्थान को अपनी चपेट में लेते हुए यूपी पहुंची तो यहां अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल की ज़ुबान ने हवा दे दी।जब तक भाजपा स्थिति सम्भालती तब तक राजभर की पार्टी के एक नेता का ठाकुरों के प्रति ‘गाली’ वाले वीडियो ने आग को ज्वाला बना दिया। उसके बाद जब चुनावी परिणाम आया तो मतदाता जातियों में विभक्त नजर आए और जातीय ठेकेदार हाथ मलते रह गए।

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