सांसद के रूप में मोदी को नैतिक हार मान लेनी चाहिए
# जिलों से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के संगठन में बदलाव होने के संकेत, असन्तुष्ट कार्यकर्ताओं के सुस्ती के सूचक, बड़े पदाधिकारियों, मंत्रियों की आमजन से दूरी की कमजोरी हुई उजागर।
# इस चुनाव में अखिलेश यादव पार्टी संगठन की मजबूती और सोशल इंजीनियरिंग को लेकर जहां सशक्त नजर आए, वहीं बसपा का संगठन हुआ छिन्न-भिन्न, निराश कार्यकर्ता कोर वोटरों को रोकने में हुए विफ़ल।
# अकेले राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से जहां खुद का कद ऊंचा कर राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया, वहीं पार्टी प्रत्याशियों, नेताओं को जिताकर पप्पू कहने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया, अब देशभर में संगठन को करेंगे मजबूत।
वाराणसी/रायबरेली।
कैलाश सिंह/एखलाक खान
तहलका ग्रुप
संसदीय चुनाव 2024 ने दो राष्ट्रीय राजनीतिक संगठनों को नैतिक व सामाजिक तौर पर घटते-बढ़ते शेयर भाव की तरह बदल दिया है। उसी तरह दो नेताओं की लोकप्रियता की साख को भी उठाया और गिराया है। कोई माने या न माने लेकिन वाराणसी और रायबरेली की सीटों पर आम जनता ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया कि अब कांग्रेस और राहुल गांधी का दौर शुरू हो चुका है और नरेंद्र मोदी एवं गुजराती लॉबी के कारण भाजपा फ़िर निचले पायदान की तरफ खिसकने लगी है।

इसको महसूस करके संघ के हस्तक्षेप से अब भाजपा संगठन में फेरबदल के संकेत मिल रहे हैं।कांग्रेस संगठन को ब्लॉक स्तर तक सशक्त बनाने के मंसूबे पर राहुल गांधी व खडगे गम्भीरता से लगे हैं। इन सबके बावजूद गुजराती लॉबी और नरेंद्र मोदी अपनी नैतिक हार तक मानने को तैयार नहीं हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो देशभर में जो जनादेश मिले हैं, वह भाजपा और कांग्रेस दोनों को आत्म मंथन के लिए हैं। क्योंकि, सरकार बनाने के लिए दोनों को बैशाखी, सहयोगी दलों को लेने के लिए उनके आगे घुटने टेकने पड़ रहे हैं’। अब जिस तरह नीतीश और नायडू मोदी को अपनी शर्तों के आगे झुकने को विवश कर रहे हैं उसी तरह यदि मौका मिला तो कांग्रेस को भी झुकना पड़ेगा।

कांग्रेस के पास तो मिलीजुली सरकार चलाने का अनुभव भी है, लेकिन भाजपा के पुराने लोग रिटायर हैं और अब अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग नहीं रहे। मोदी और शाह ने बीते एक दशक में विभिन्न पार्टियों के साथ भाजपा में भी तोडफोड़ करके एक एकक्षत्र राज किया अब वह कैसे दूसरों के आगे झुकेंगे। शायद बहुमत साबित करने को मिले वक्त में कुछ गणित करें।

लेकिन, मोदी को कुर्सी की लालच छोड़कर खुद मार्गदर्शक मण्डल में चले जाना चाहिए। इससे उनकी इमेज भी बचेगी और संघ-भाजपा को संगठनात्मक तौर पर शीर्ष से लेकर टेल तक फिर मजबूती प्रदान करने का रास्ता मिल सकेगा।

रहा सवाल वाराणसी और रायबरेली सीटों पर जनमत का तो वाराणसी की जनता ने 2014-2019 में जिस तरह मोदी को ‘हर हर मोदी’ कहकर पांच लाख से अधिक वोटों के अंतर से जिताया था, वहीं इस बार डेढ़ लाख के अंतर की जीत लाने में भाजपा के प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों नेताओं और मुख्य मंत्रियों को लगाना पड़ा।

उन्हें भी पसीने आ गए। वाराणसी के ग्रामीण वोटरों ने मोदी को ज्यादा नकारा। बस यहीं मोदी की नैतिक हार हुई। क्योंकि यहां कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय के लिए बड़े नेताओं के नाम पर राहुल-प्रियंका और अखिलेश-डिंपल ही रोड शो किए। उसमें उमड़ी भीड़ ने ही प्रत्याशी अजय राय के हौसले को ऊंचाई प्रदान कर तगड़ी टक्कर के संकेत दे दिए थे।

उधर रायबरेली में राहुल की मां सोनिया की एक चिठ्ठी और बहन प्रियंका गांधी के प्रचार ने राहुल गांधी को लगभग पांच लाख के अंतर से जीत देकर आमजन ने बता दिया कि अब कांग्रेस की युवा सरकार देश में चाहिए।अगर यूपी में सपा के संगठन पर नजर डालें तो शिवपाल यादव के लौटने के बाद से पार्टी कार्यकर्ताओं का जोश फिर उन्माद में तब्दील हो गया।

कांग्रेस से गठबंधन के चलते इन्हें मुस्लिम वोट बैंक हासिल हुआ और प्रत्याशी चयन में उन्होंने अदर बैकवर्ड व मुस्लिम चेहरों को उतार दिया। यही उनकी सफलता का राज है। भाजपा का फेलियर होना गैर भाजपाई प्रत्याशियों के आने से संगठन का कार्यकर्ता विचलित हो गया।

इन आयातित प्रत्याशियों को विभिन्न दलों से तोड़कर गुजराती लॉबी लाई, उसका खामियाज़ा भाजपा को भुगतना पड़ा।इस लॉबी को उम्मीद थी की मुद्दे भले फेल हुए पर मोदी की लहर गंगा में कायम है। उनसे यहीं चूक हो गई। अब देखिए केंद्र सरकार कौन बनाता और कितने दिन चला पाता है?








