हर घर में घुसे हरि नाई को बेपर्द कर गया अंग्रेजों का जेलर
कुमार सौवीर
स्वतंत्र पत्रकार
तहलका 24×7
हरिनाई कोई एक व्यक्ति नहीं है, यह एक प्रवृत्ति है। हर पड़ोस, हर मोहल्ले में ऐसे लोग मौजूद हैं जो चुपचाप अपनी कुण्डली समेटे बैठते हैं। लोग अक्सर नहीं जानते कि उनके बीच कौन और कैसा हरि नाई है, जिसने किसी की जिंदगी, व्यक्तित्व, पड़ोस या कभी-कभी पूरे समाज को प्रभावित किया हो। न जाने कितनी जिंदगी, कितने सपने, कितने रिश्ते टूटे या बिखरे हैं, ऐसे हरि नाई समान लोगों के चलते।

मगर पता तो तब चलता है, जब ये हरि नाई आम आदमी का काम तमाम कर चुके होते हैं।इसी प्रवृत्ति का सबसे यादगार रुप हमें स्क्रीन पर देखने को मिला, गोवर्धन असरानी। उनके अभिनय ने हरिनाई को बेपर्दा कर दिया और दिखा दिया कि हास्य, व्यंग्य और मानवीय संवेदना के जरिए कैसे किसी प्रवृत्ति को उजागर किया जा सकता है।कभी-कभी सिनेमा का एक छोटा-सा दृश्य हंसी, शोक और जोश का ऐसा संगम बन जाता है कि वह समय की सीमाओं को पार कर जाता है।

शोले (1975) का जेल सीन भी कुछ ऐसा ही था, जहां असरानी का हिटलर-स्टाइल जेलर, अपनी लयबद्ध ठहराव वाली आवाज़ और बनावटी सख्ती के साथ, सिर्फ नौ मिनट में अमर हो गया। फिल्म में हरिराम नाई, जो इस प्रवृत्ति का प्रतीक है, एक साधारण कैदी है। वह बाल काटते हुए कैदियों की बातें सुनता और जेलर को खबर देता है। जब कैदी सुरंग खोदने की योजना बनाते हैं, तो उसकी मुखबिरी पकड़ी जाती है और बदले में कैदी उसके चेहरे पर गर्म सलाखें दबा देते हैं। जेलर हरिराम को बचाने दौड़ता है, लेकिन उसकी भी हथेली झुलस जाती है।

यह दृश्य फिल्म के आधिकारिक रिकॉर्ड (IMDb), संवाद ट्रांसक्रिप्ट संग्रह और साक्षात्कारों में दर्ज है, और असरानी ने बाद में स्वीकारा कि उन्होंने यह इम्प्रोवाइज़ेशन खुद जोड़ा था।यह दृश्य केवल कॉमेडी नहीं था, यह सत्ता के व्यंग्य और मानवीय करुणा का संगम था। असरानी की टाइमिंग ने उस त्रासदी को व्यंग्यात्मक रोशनी में बदल दिया। हंसी में दर्द और दर्द में हंसी। चार्ली चैपलिन की The Great Dictator से प्रेरित यह किरदार उन्होंने खुद गढ़ा था।

मूंछें, गोल चश्मा और लयबद्ध ठहराव वाली “हिचकाहट” उनकी पहचान बनी। “हम… हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं!” यह संवाद उन्होंने खुद लिखा और यह आज भारतीय सिनेमा के सबसे यादगार डायलॉग्स में गिना जाता है। असरानी केवल हास्य कलाकार नहीं थे, वे भारतीय सिनेमा की सादगी, सहजता और दिल को छू लेने वाली भावनाओं का प्रतीक थे।चुपके चुपके, खट्टा मीठा, हेरा फेरी जैसी फिल्मों में छोटे-छोटे रोल भी उन्होंने इतनी जीवंतता, भाव और ह्यूमर से निभाए कि वे अमर बन गए।

उनकी लयबद्ध ठहराव वाली डिलीवरी, जो बचपन की हल्की हकलाहट से निकली थी और पुणे के फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII) के प्रशिक्षण से कला बन गई, संवादों को लय, ठसक और व्यंग्य देती थी। वह हंसी, जो कभी पागलपन लगती थी, असल में सामाजिक टिप्पणी थी। तानाशाही पर, व्यवस्था पर और शायद हम सब पर। भारतीय फिल्मों में मुखबिर या इनसाइडर हमेशा दोहरी ज़िंदगी जीते आए हैं और असरानी-केश्टो का हरिराम इस परंपरा का सबसे देसी और करुण उदाहरण था। बाद के वर्षों में यह विषय कई रूपों में लौटा।

संजय सूरी ने मुखबीर (2008) में भावनात्मक गहराई दी, आलिया भट्ट ने राज़ी (2018) में इसे कर्तव्य और प्रेम के द्वंद्व में उतारा, तापसी पन्नू ने बेबी (2015) में आधुनिक साहस से जोड़ा और सलमान-कटरीना ने एक था टाइगर (2012) में रोमांस में ढाला, पर असरानी का जेलर और केश्टो का हरिराम, दोनों मिलकर उस क्लासिक द्वंद्व को गढ़ गए। हंसी और विश्वासघात, सख्ती और सादगी, तानाशाही और त्रासदी। व्यक्तिगत जीवन में भी असरानी की सरलता और सादगी उनकी कला जितनी ही प्रेरक थी।

मंजू असरानी के साथ उनका पांच दशकों का साथ, कठिनाइयों के बावजूद उनका अडिग हंसमुख स्वभाव और परिवार के प्रति समर्पण, उनके व्यक्तित्व की खूबसूरती का परिचायक था।उनके करियर में गुजराती सिनेमा, निर्देशन और संवाद लेखन जैसी भूमिकाएं भी शामिल थीं, जिससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा उजागर हुई।
अपने जीवन के अंतिम दिन 20 अक्टूबर 2025 को उन्होंने X (पूर्व ट्विटर) पर दीपावली की शुभकामनाएं दीं और कुछ ही घंटों बाद शांति से हमें छोड़ गए। मानो हंसी की रोशनी उन्होंने खुद पीछे छोड़ दी।

एक ऐसी रोशनी, जो हमें याद दिलाती है कि सादगी में भी सिनेमा की आत्मा बसती है। उनके निधन के बाद बॉलीवुड, राजनेताओं और प्रशंसकों की प्रतिक्रियाओं से सोशल मीडिया भर गया।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें “भारतीय सिनेमा की सबसे प्रखर हास्य-आवाज़” कहा। किसी ने हंसना सिखाया, किसी ने रोना, असरानी ने सिखाया दोनों को एक साथ जीना। उनकी हंसी अब भी गूंजेगी, जेल की दीवारों से बाहर, हमारे दिलों के भीतर।







