कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष को हाईकोर्ट से राहत, धारा 144 उल्लंघन के मुकदमे की कार्यवाही रद्द
प्रयागराज।
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उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और पूर्व सांसद अजय राय को इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिली है। कोर्ट ने उनके खिलाफ निषेधाज्ञा उल्लंघन (धारा 144) के मामले में दर्ज मुकदमे में चल रही संपूर्ण कार्रवाई को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने इस मामले में पुलिस द्वारा दाखिल आरोप पत्र और ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी सम्मन आदेश भी रद्द कर दिया।अजय राय ने मुकदमे की कार्रवाई को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, उनकी याचिका पर न्यायमूर्ति समीर जैन ने सुनवाई की।

पूर्व सांसद अजय राय और 10 अन्य के खिलाफ 20 सितंबर 2019 को वाराणसी के कोतवाली थाने में निषेधाज्ञा उल्लंघन का मुकदमा दर्ज किया गया था। आरोप था कि उन्होंने अपने समर्थकों के साथ जुलूस निकालकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया, जबकि उस समय जिले में धारा 144 लागू थी। सरकारी आदेश की अवज्ञा पर उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 188 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया।मामले में पुलिस ने जांच के बाद आरोप पत्र दाखिल कर दिया।

ट्रायल कोर्ट ने आरोप पत्र पर संज्ञान लेते हुए अजय राय व अन्य को सम्मन जारी कर तलब किया। अजय राय ने सम्मन आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, साथ ही पुलिस द्वारा दाखिल आरोप पत्र और मुकदमे की समस्त कार्यवाही को रद्द करने की मांग की।उनके वकीलों का कहना था कि राजनीतिक कारणों से याची के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है।उस पर झूठे आरोप लगाए गए हैं, वास्तविकता यह है कि वह शांतिपूर्वक जुलूस निकल रहे थे और सिर्फ जुलूस निकालने पर धारा 188 आईपीसी के तहत अपराध नहीं बनता है।यह भी कहा गया कि धारा 144 के उल्लंघन मात्र से धारा 188 आईपीसी के तहत मुकदमा नहीं दर्ज हो सकता है।

इसे लागू करने के लिए आवश्यक है कि याची द्वारा किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न किया गया हो या ऐसा करने का प्रयास किया गया हो या किसी विधिपूर्वक नियोजित व्यक्ति को चोट पहुंचाई गई हो, जबकि पुलिस ने जो साक्ष्य एकत्र किए हैं उससे ऐसे किसी अपराध का खुलासा नहीं होता है।इसके बावजूद पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल किया और अदालत ने उस पर संज्ञान ले लिया।याची के अधिवक्ता का कहना था कि सीआरपीसी की धारा 195 (1) ए (1) के अनुसार, धारा 188 के अपराध में सिर्फ लोक प्राधिकारी द्वारा लिखित परिवाद पर ही न्यायालय संज्ञान ले सकता है।

सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता, जबकि इस मामले में न्यायालय ने सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लिया है।याचिका का विरोध कर रहे अपर महाधिवक्ता मनीष गोयल ने इस बात को स्वीकार किया कि धारा 188 में सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता है, मगर उनका कहना था कि सिर्फ ऐसा करने से पुलिस द्वारा दाखिल आरोप पत्र दूषित नहीं होता है।यदि आरोप पत्र रद्द किया जाएगा तो पुलिस द्वारा एकत्र साक्ष्य भी स्वतः रद्द मान लिए जाएंगे और इस स्थिति में लोक प्राधिकारी के पास लिखित परिवाद दाखिल करने का विकल्प नहीं होगा।

कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि ट्रायल कोर्ट ने पुलिस रिपोर्ट पर सीधे संज्ञान लिया है न की लोक प्राधिकारी के लिखित परिवाद पर, जबकि दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान के अनुसार अदालत सिर्फ लिखित परिवाद पर ही संज्ञान ले सकती है। कोर्ट ने कहा कि यदि दाखिल आरोप पत्र से किसी अपराध के होने का खुलासा नहीं होता है तो आरोप पत्र भी रद्द किया जा सकता है। इस निष्कर्ष के साथ अदालत ने ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी सम्मन आदेश और आरोप पत्र तथा मुकदमे की समस्त कार्यवाही को रद्द कर दिया।