छठ पर्व के आध्यात्मिक पहलू के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व
स्पेशल डेस्क।
राजकुमार अश्क
तहलका 24×7
भारत में त्योहारों की एक खासियत होती है। ये त्योहार जहां आध्यात्मिक पहलू समेटे होते हैं, वहीं इनके वैज्ञानिक महत्व भी कुछ कम नहीं होते। इस विशेष लेख में हम बिहार सहित पूरे भारतवर्ष में मनाए जाने वाले महापर्व छठ पूजा के बारे में जानेंगे।
छठ का पर्व पूरे देश में धूम-धाम के साथ मनाया जाता। ये तीन दिवसीय महापर्व दीपावली के 4 दिन बाद शुरू होता है और पूरे 3 दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन व्रती महिलाएं सुबह नहा धोकर नये वस्त्र धारण करती हैं और शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करती हैं। इस चरण को स्थानीय भाषा में “नहाय खाय” कहा जाता है। दूसरे दिन व्रती महिलाओं का उपवास रहता है। इस दिन वो अन्न और जल का सेवन नहीं करतीं। शाम के समय चावल और गुड़ की बनी खीर खाई जाती है। इसे स्थानीय भाषा में “खरना” कहते हैं।
इस महापर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन तीसरा दिन होता है जिसमें प्रसाद के रूप में “ठेकुआ” बनाया जाता है। फल, गन्ना, चावल के बने लड्डू तथा अन्य सामग्री को बांस से बनी टोकरी में सजाकर व्रती महिलाएँ नदी, तालाब या पोखरे के किनारे पहुंचती हैं। वहां कमर तक पानी में खड़ी होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देती हैं तथा संतान की लम्बी आयु की कामना करती हैं। ये बहुत ही कठिन व्रत माना जाता है क्योंकि इसमें व्रती महिलाओं को पूरे 36 घंटों तक भूखे प्यासे रहना पड़ता है। अमूमन यह व्रत महिलाएं रखती हैं लेकिन विशेष परिस्थितियों में पुरूष भी इस व्रत को रख सकते हैं।
# छठ का धार्मिक महत्व
धार्मिक ग्रन्थों में यह वर्णन मिलता है कि सबसे पहले इस व्रत को द्रौपदी ने तब किया जब पांडव जुए में अपना सब कुछ हारकर वन वन भटक रहे थे। तब श्रीकृष्ण की सलाह पर द्रौपदी ने इस व्रत को किया और माता छठी के आशीर्वाद से उन्हें उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया।
दूसरी प्रचलित कथा के अनुसार जब माता सीता और प्रभु राम चौदह वर्ष बाद अयोध्या वापस आए तो माता सीता ने मौजूदा बिहार के मुंगेर जिले में नदी के तट पर पूरे विधि विधान से यह व्रत और पूजा की थी। संभवतः इसी वजह से यह बिहार का एक प्रमुख महापर्व माना जाता है। तभी से यह व्रत आम जनमानस के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है।
# षष्ठी देवी की कहानी
धार्मिक ग्रंथों से पता चलता है कि षष्ठी देवी को सूर्य की बहन कहा गया है, मगर कुछ जगहों पर षष्ठी देवी का परिचय ईश्वर की मानस पुत्री देवसेना के रूप में भी कराया गया है। यह प्रकृति की मूल प्रवृत्ति के छठवें अंश से उत्पन्न हुईं इसीलिए इन्हें षष्ठी माता भी कहा जाता है।
# राजा प्रियवद की कहानी
प्राचीन काल में एक महाप्रतापी राजा हुए जिनका नाम प्रियवद था। राजा को कोई संतान नहीं थी जिस कारण राजा व रानी बहुत दुखी रहते थे। महर्षि कश्यप के परामर्श पर राजा प्रियवद और रानी मालिनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए हवन पूजन किया जिसके फलस्वरूप रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया मगर वह शिशु मृत पैदा हुआ था। पुत्र शोक में राजा ने अपने नवजात पुत्र के साथ ही अपने प्राण त्यागने का निश्चय किया। उसी समय भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और राजा को रोकते हुए षष्ठी माता की पूजा करने का आदेश दिया जिनकी कृपा से राजा को पुत्र की प्राप्ति हुई।
# जाति प्रथा पर प्रहार करता है यह व्रत
यह महापर्व जाति व्यवस्था पर बहुत गहरा प्रहार करता है। जिस समय व्रती महिलाएँ जल में खड़ी होकर सूर्य को अर्ध्य देती हैं, उस समय जात पात की सभी दीवारें धराशाई हो जाती हैं। सभी जाति की महिलाएं एक साथ सूर्य को जल चढ़ाती हैं। उस भीड़ में कौन किस जाति का है, बता पाना बहुत ही मुश्किल होता है।
# छठ पूजा का वैज्ञानिक पहलू
छठ महज एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक पहलू भी है। इस दिन व्रत करने वाले लोग शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होते हैं। माना जाता है कि छठ पूजा के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली सभी वस्तुएं शरद ऋतु में फायदेमंद होती हैं। मान्यताओं के अनुसार कार्तिक महीने में प्रजनन शक्ति बढ़ती है और गर्भवती महिलाओं के लिए विटामिन-डी बहुत ही आवश्यक होता है, ऐसे में व्रती महिलाओं को सूर्य पूजा से बेहद फायदा होता है।
अगर सूर्य को अर्घ्य देने की बात करें तो इसके पीछे रंगों का विज्ञान छुपा है। यदि इंसान के शरीर में रंगों का संतुलन बिगड़ जाता है तो बहुत सी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। प्रातः सूर्यदेव को जल चढ़ाते समय शरीर पर पड़ने वाले प्रकाश से ये रंग संतुलित हो जाते हैं जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और त्वचा संबधित रोग भी कम होते हैं। सूर्य की रोशनी से मिलने वाले विटामिन डी की मात्रा भी शरीर में पूरी होती है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो षष्ठी के दिन एक विशेष खगोलीय बदलाव होता है। तब सूर्य की पराबैगनी किरणें असामान्य रूप से एकत्र होती हैं और इनके दुष्प्रभावों से बचने के लिए सूर्य की ऊषा और प्रत्यूषा के रहते जल में खड़े रहकर अर्ध्य दिया जाता है और छठ व्रत किया जाता है।
इसके साथ ही मान्यता है कि चतुर्थी को लौकी और चावल का सेवन करना भी शरीर को व्रत के अनुकूल तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा है। पंचमी को निर्जला व्रत के बाद गन्ने के रस व गुड़ से बनी खीर पर्याप्त ग्लूकोज की मात्रा सृजित करती है। छठ में बनाए जाने वाले अधिकतर प्रसाद में कैल्शियम की भारी मात्रा मौजूद होती है, भूखे रहने के दौरान अथवा उपवास की स्थिति में मानव शरीर नैचुरल कैल्शियम का ज्यादा उपभोग करता है। प्रकृति में सबसे ज्यादा विटामिन-डी सूर्योदय और सूर्यास्त के समय होता है। इसलिए अर्घ्य का समय भी यही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि कटि तक जल में खड़े होकर डूबते और उगते सूर्य को देखना और अर्ध्य देना बहुत फायदेमंद होता है। इससे टॉक्सीफिकेशन की प्रक्रिया होती है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य की किरणों में सोलह कलाएं होती है। जब सूर्य को जल दिया जाता है तो जल से परावर्तित होकर जब किरणें हमारी आंखों तक पहुॅंचती हैं, उससे हमारे स्नायुतंत्र जो शरीर को नियंत्रित करने का कार्य करते हैं, वह सब सक्रिय हो जाते हैं और हमारी कार्य क्षमता बढ़ जाती है।