नौकरशाही का संवेदनहीन बुलडोजर
सौरभ आर्य
विशेष संवाददाता
नौकरशाही की निरंकुशता और असंवेदनशीलता के किस्से एक नहीं, हजारों हैं। कैसे कोई व्यक्ति आला दर्जे की शिक्षा लेकर, एड़ी चोटी का जोर लगाते हुए तैयारी करके, जन प्रशासन को लेकर अपने दृष्टिकोण के आधार पर साक्षात्कार को पास कर नौकरशाह बनता है। फिर कैसे अचानक उस पर असंवेदनशीलता का अभेद्य आवरण छा जाता है। यह लंबे समय से बड़ा सवाल बना हुआ है। कानपुर देहात में झोपड़ी पर बुलडोजर चलते वक्त मां और बेटी का जलकर मर जाना संवेदनहीन नौकरशाही की, निरंकुशता की एक अश्लील बानगी है। जो हमेशा बड़े क्षोभ से याद की जायेगी।
नौकरशाही को लेकर आशंका संविधान सभा के कुछ सदस्यों को भी थी। लोकसेवा के गठन के मसले पर हुई बहस में कुछ सदस्यों ने यह डर प्रकट किया भी था कि अंग्रेजों ने जो सामंती सोच वाली नौकरशाही गठित की है, अगर वो स्वतंत्र भारत में भी रह गई तो स्वाधीनता और लोकतंत्र की मूल भावना पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जायेगा। तब सरदार पटेल ने इस डर को खारिज किया था। लेकिन कानपुर देहात जैसे तमाम मामले उस डर के हकीकत में तब्दील होने की तस्दीक करते हैं।
गांधी ने इस विषय में लोकसेवक की अवधारणा प्रस्तुत की थी जो भारत के मूल्यों और सोच से प्रेरित हों। हालात उसके ठीक उलट हैं और प्रमाण है कानपुर देहात की यह घटना। जिसमें बुलडोजर और उसे नियंत्रित कर रहे नौकरशाहों के सामने मां बेटी ने आत्मदाह कर लिया ।
मामला मूल रूप से देहातों में अमूमन होने वाली आपसी पट्टीदारी रंजिश का था। जो नौकरशाहों और बुलडोजर के भारी भरकम लश्कर की शह पाकर इतने दर्दनाक अंजाम तक पहुंचा। यहां यह साफ है कि तंत्र को कुछ लोगों ने अपने पक्ष में बड़ी बेदर्दी से इस्तेमाल किया। ऐसे मामले पूरे तंत्र को कठघरे में खड़ा कर देते हैं जो बजाय मानवीय पक्ष को परखे एक तरफ झुका रहता है। इस मामले में भी प्रशासन दो पड़ोसियों की अदावत में एक के साथ खुलकर खड़ा दिखा। शायद इसीलिए मुमकिन होने के बावजूद दोनों महिलाओं को बचाने की कोशिश नहीं होती।
यह विकट विडम्बना है कि हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन हमारी नौकरशाही का ज्यादातर हिस्सा अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त है। इसकी वजह नौकरशाही में सुधार की कोशिश नहीं करना भी है। राजनीतिक दलों के लिए यही नौकरशाही हथियार बन जाती है, इसलिए सत्ताहीन स्थिति में लाख उत्पीड़न के बावजूद सत्तारूढ़ होने पर इसे बदलने का ख्याल उन्हें नहीं आता।
नौकरशाही की इस निरंकुशता ने पीछे कहीं न कहीं जातिवाद का भूत भी है। नौकरशाही के लिए हर नागरिक समान होना चाहिए। लेकिन जातीय संघर्ष और जातिगत भेदभाव के चलते नौकरशाही में भी जातीय गुट बन गए हैं। कानपुर देहात की हृदय विदारक घटना के दौरान दी गई जातिसूचक गलियां इसका पुख्ता प्रमाण हैं।
यहां आकर प्रशासनिक सुधार पर बात जरूरी हो जाती है। सांसद वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने तमाम बुराइयों को इंगित करते हुए उन्हें दूर करने का सुझाव दिया था। लेकिन कुछ न हुआ। नौकरशाही के बारे में कहा जाता है कि वह खुद को बदलना नहीं चाहती, और ये सच भी है। सुधार के तमाम प्रयासों के विफल होना उन्हें और भी निरंकुश बना दिया है। ऐसा नहीं होता तो वारदात के ही वक्त डीएम नेहा जैन महोत्सव में ठुमके नहीं लगा रही होतीं।
राजनीतिक दलों को हर बार नौकरशाही की निरंकुशता के सापेक्ष जनता का कोप झेलना पड़ा है। यानी जितने जुल्म नौकरशाही करेगी, लोगों के दिल में सरकार के लिए नकारात्मक सोच बढ़ती जायेगी। बुलडोजर के खेल की शुरुआत योगी सरकार ने की थी जो अब यह भ्रष्टाचार को अंजाम देने वाला खूनी खिलौना बन गया है। इसका नफा नुकसान सीधे योगी सरकार के सिर आएगा। लिहाजा बहुत जरूरी है कि सरकार नौकरशाही और बुलडोजर के इस खेल की लगाम कस के पकड़े। एक और ऐसा वाकया सरकार और पार्टी के लिए भारी खतरे की वजह बन सकता है।