जौनपुर : चेयरमैनी की लड़ाई में जन धारणाओं की भूमिका
# किस्सों के जरिए नैरेटिव गढ़ने की पुरजोर कोशिश में प्रत्याशी
शाहगंज।
सौरभ सेठ
तहलका 24×7
नगर पालिका परिषद के लिए अध्यक्ष पद की लड़ाई बीते तमाम सालों में सबसे दिलचस्प, कड़ी और नजदीकी बताई जा रही है। निवर्तमान चेयरमैन के बीते कार्यकाल से कुछ लोगों की नाराजगी और विपक्ष के युवा चेहरे की मौजूदगी इसकी बड़ी वजह है। चूंकि टक्कर कांटे की है इसलिए कई तरह के परसेप्शन यानी धारणाएं फिजाओं में तैर रही हैं और किस्से सुनाकर नैरेटिव भी गढ़े जा रहे हैं। आलम ये है कि इन धारणाओं से पार पाने वाला ही अध्यक्ष पद की इस लड़ाई को जीत सकता है।
छोटी सी नगर पालिका शाहगंज में सवाल महज 24 हजार वोटों का है। स्पष्ट है कि 60 प्रतिशत भी मतदान हुआ तो खेल 14 से 15 हजार वोटों के बीच ही रहेगा। लड़ाई में मुख्य रूप से हर बार की तरह तीन नाम हैं लेकिन एक और गौर करने की बात है कि इन तीनों के अलावा छोटी पार्टियों और निर्दल प्रत्याशियों में एक भी नाम ऐसा नहीं है, जिसके चलते वोटों का बिखराव हो सके। पूरी संभावना है कि तीन मुख्य प्रत्याशियों के अलावा बाकी सभी प्रत्याशी कुछ वोटों में ही सिमट कर रह जायेंगे। समीकरण साफ इशारा कर रहा है कि चेयरमैन बनने वाले उम्मीदवार को कम से कम 6 से 7 हजार वोट हासिल करना ही होगा।
अब बात करते हैं जनता में व्याप्त परसेप्शन यानी धारणाओं की.. इनमें कई तो स्वाभाविक हैं और कई आरोपित.. नगर के अपर मिडिल क्लास की, या यूं कहें कि भाजपा के कोर वोटर की धारणा है कि कोई कितना भी लड़ ले, येन-केन प्रकारेण जीत सत्ताधारी दल से खड़े प्रत्याशी की ही होगी। इस धारणा का आधार सत्तारूढ़ दल से जुड़ा होना है। इस धारणा को मानने वाले पुराने उदाहरण गिना रहे हैं और एंटी इनकंबेंसी की बात मानने के बावजूद अपनी धारणा के खिलाफ कोई तर्क नहीं स्वीकार कर रहे। ये दीगर बात है कि यह धारणा दोधारी तलवार जैसी है। इससे माहौल निवर्तमान अध्यक्ष की तरफ झुके या ना झुके, इसने विपक्षियों को अतिरिक्त सावधान जरूर कर दिया है।
दूसरा परसेप्शन विपक्ष के पक्ष में है, ‘समय है बदलाव का’। दबी जुबान में सत्तारूढ़ दल के भी कई नेता मान रहे हैं कि नगर में भगवा दल की राजनीति ऑटो मोड में एक परिवार तक ही केंद्रित होकर रह जा रही है, जो कि उस पार्टी से जुड़े अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए खतरे की घंटी है। इनका मानना है कि इस चुनाव में जीत होने पर यह निर्भरता और केंद्रीयता हद से आगे गुजर जायेगी जोकि ना सिर्फ नगर, बल्कि पार्टी के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकती है। ये बड़ी वजह है कि सत्ता पक्ष के तमाम चर्चित चेहरे या तो तटस्थ हैं, या फिर उदासीन हैं। बदलाव की धारणा को पुष्ट करने के पीछे बड़ी वजह नगर में बीते कार्यकाल के दौरान मेनरोड टूटने की घटना है। विपक्ष कथित भ्रष्टाचार को लगातार इंगित कर रहा है और सघन प्रचार अभियान के दौरान बदलाव की जरूरत पर जोर दे रहा है। इस आक्रामक रणनीति ने नगर में एक अभूतपूर्व माहौल रचा है, जिसे कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता।
एक और परसेप्शन है जोकि सत्ता पक्ष द्वारा लोगों के दिमाग में बोया जा रहा है। बहसों में तर्क दिए जा रहे कि सपा प्रत्याशी की जीत होने पर नगर पालिका पर एक पूर्व विधायक का परोक्ष शासन हो जायेगा। सिर्फ यही नहीं, यह भी कि सपा जीती तो विकास कार्य प्रभावित होंगे और हार होने की वजह से शासन द्वारा शाहगंज नगर पालिका को कम महत्व और कम फंड मिलेगा। शायद वो भूल जाते हैं कि भारत चुनाव प्रधान देश है और किसी भी दल के लिए निकाय चुनाव से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होता है लोकसभा और विधानसभा का चुनाव। 2024 नजदीक है, वोट भी लेना है, ऐसे में शायद ही सत्ता – शासन किसी क्षेत्र को दरकिनार करने की हिम्मत दिखा सके। ऐसे में हार के बाद सरकार द्वारा नजरअंदाज किये जाने के खतरे की आशंका महज कोरी कल्पना ही लगती है।
चूंकि अब चुनाव सोशल मीडिया पर भी लड़ा जाता है, इसलिए दोनों पक्ष किस्से कहानियां सुनाकर अपने अपने पक्ष में नैरेटिव गढ़ रहे हैं। ठेका कुछ ‘पक्षकारों’ ने ले रखा है जो खोज-खोजकर दोनों तरफ के नकारात्मक बिंदुओं पर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं और इस बीच जवाबी कार्रवाई भी जारी है। इन सबका एक फायदा भी है कि सारी करतूतें और कारनामे जनता के सामने स्पष्ट हो जा रहे हैं। वैसे भी माना जाता है कि सोशल मीडिया पर चुनावी जंग अधिकांशतः नकारात्मक ही होती है। प्रत्याशी अपनी खूबियों को बताने की बजाय विपक्षी की खामियों को निशाना बनाते हैं, कमोबेश यही शाहगंज के चुनाव में भी हो रहा है। बात जब खामियों और बुराइयों की आती है तो मौजूदा दौर में “कम बुरे को चुनने” का सिद्धांत अमूमन चर्चित है। देखना दिलचस्प होगा कि शाहगंज की जनता किसे कम बुरा और कम खुराफाती पाती है। फ़िलहाल भाजपा प्रत्याशी गीता जायसवाल के समर्थन में क्षेत्रीय विधायक रमेश सिंह का घर घर पहुंचना प्रत्याशी और नाराज़ लोगों के बीच के मतभेद को मिटाने में रामबाण साबित हो सकता है। इतना तो सच है कि लोकतंत्र के इस स्थानीय लोकपर्व में मनोरंजन अपने चरम पर है।