प्रेस की स्वतंत्रता: समाज का दर्पण या सत्ता का डर?
# मीडिया का राजनीतिक और पूंजीवादी गठजोड़: अनेक मीडिया संस्थान अब कॉरपोरेट स्वामित्व के अधीन हैं, जो सरकार से विज्ञापन और समर्थन पाने के लिए अपनी निष्पक्षता से समझौता करते हैं, नतीजतन टीआरपी की होड़ और राजनीतिक दबाव के बीच “न्यूज़”अब“व्यूज़” बनती जा रही है।
अजीम सिद्दीकी
तहलका 24×7 विशेष
हर वर्ष 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाकर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी, पत्रकारों के योगदान और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की शपथ दोहराते हैं। लेकिन यह अवसर केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का भी है। क्या वर्तमान समय में प्रेस वास्तव में स्वतंत्र है? क्या वह निष्पक्ष रूप से समाज का दर्पण बन पाने में सक्षम है, या फिर सत्ता की छाया तले वह अपनी धार खो बैठा है?प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ मीडिया ही वह शक्ति है जो सत्ता को जवाबदेह बनाती है, समाज में जागरूकता फैलाती है, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करती है।

महात्मा गांधी ने कहा था, “एक निर्भीक और स्वतंत्र प्रेस समाज को सच से परिचित कराता है, न कि भ्रम से।” लेकिन क्या यह आदर्श स्थिति आज भी विद्यमान है? हाल ही में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2024 में भारत को 180 देशों में 161वां स्थान प्राप्त हुआ। यह आंकड़ा न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह संकेत भी देता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में फिसलता जा रहा है। भारत में पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारों पर हमले, गिरफ्तारी, ऑनलाइन ट्रोलिंग और सरकारी दबाव के मामले तेज़ी से बढ़े हैं।

2023 में ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कम से कम 4 पत्रकारों की हत्या उनके कार्य से जुड़ी वजहों से हुई, और दर्जनों को धमकियां दी गईं।वर्तमान परिदृश्य में एक और बड़ी चुनौती सामने आई है। मीडिया का राजनीतिक और पूंजीवादी गठजोड़। अनेक मीडिया संस्थान अब कॉरपोरेट स्वामित्व के अधीन हैं, जो सरकार से विज्ञापन और समर्थन पाने के लिए अपनी निष्पक्षता से समझौता करते हैं। नतीजतन टीआरपी की होड़ और राजनीतिक दबाव के बीच “न्यूज़” अब “व्यूज़” बनती जा रही है।

वह प्रश्न जो सत्ता से पूछे जाने चाहिए, वे या तो पूछे ही नहीं जाते, या उनकी भाषा इस प्रकार से ढाली जाती है कि वे आलोचना कम और प्रशंसा अधिक प्रतीत हों। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 70 प्रतिशत से अधिक प्रमुख टीवी समाचार चैनल या तो किसी राजनैतिक या कॉरपोरेट समूह के स्वामित्व में हैं, या उनके प्रभाव में काम करते हैं। इन विकट परिस्थितियों में भी कुछ पत्रकार और मीडिया संस्थान सच्चाई को सामने लाने का साहस कर रहे हैं। राणा अय्यूब, सिद्धार्थ वरदराजन, रविश कुमार जैसे पत्रकार सत्ता के दमन के बावजूद जनहित में मुद्दे उठाते रहे हैं। डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे The Wire, Scroll, Newslaundry, Article 14 आदि अब उन आवाज़ों के लिए मंच बन गए हैं, जिन्हें मुख्यधारा की मीडिया ने अनदेखा कर दिया।

डिजिटल प्रेस स्वतंत्रता भी आज एक नया युद्धक्षेत्र बन गई है, जहां सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों के बीच सच्चाई की खोज करना और भी चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। कई स्वतंत्र पत्रकारों को सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी रिपोर्टिंग को जनता तक पहुंचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, लेकिन यह भी सच है कि यही माध्यम जनता को मुख्यधारा मीडिया की सीमाओं से परे जाकर जानकारी लेने का अवसर देता है। यह समझना आवश्यक है कि प्रेस की स्वतंत्रता केवल पत्रकारों के लिए नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए जरुरी है। जब प्रेस निष्पक्ष होता है, तभी जनता सच जान पाती है और सत्ता को चुनौती दे सकती है।

जब प्रेस डर के साये में काम करता है, तो लोकतंत्र की नींव हिलती है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतरेश ने कहा है, “A free press is not a threat. It is essential.” एक स्वतंत्र प्रेस कोई खतरा नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इस अवसर पर हमें यह तय करना होगा कि हम किस दिशा में बढ़ना चाहते हैं? एक ऐसा समाज जहां प्रेस सत्ता का प्रवक्ता बनकर रह जाए, या वह समाज जहां प्रेस सच को निर्भीकता से सामने लाए। पत्रकारिता का पहला कर्तव्य जनता के प्रति होता है, सत्ता के प्रति नहीं। यह सिद्धांत जितना आज प्रासंगिक है, शायद पहले कभी नहीं रहा। हमें एकजुट होकर उन आवाज़ों का समर्थन करना होगा जो सच बोलने का साहस करती हैं। यदि प्रेस समाज का दर्पण नहीं रहेगा, तो यह डर और भ्रम का उपकरण बन जाएगा और फिर लोकतंत्र केवल नाम भर रह जाएगा।
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