ध्वस्त होते धुरंधर…
स्पेशल डेस्क।
एख़लाक खान
तहलका 24×7
अविधा में उन्हें विद्वान के अलंकरण से अभिसिंचित किया गया था इसके लिए वे कृत संकल्पित थे परंतु लक्षणा में तोप थे। उनको सुनने से अधिक सहने का साहस रखना पड़ता था। जातीय प्रबलता दिनों-दिन उत्थान ले रही थी। इसका नुकसान यह था कि राष्ट्रीय भाव स्खलित होता जा रहा था।
एक समय था जब अस्तित्व को लेकर दलित जातियों ने मार्क्स को मसीहा मानते हुए सनातनी/ब्राह्मणी व्यवस्था को खूब कोसा। भला-बुरा कहा और भर-भर के पिलाया पर ब्राह्मणी व्यवस्था सुरसा की तरह सब कुछ हजम करती गयी और बदले में नुकसान दलितों का ही होता गया। क्योंकि इस मकड़जाल से सुस्पष्ट दलित इतिहास बोध का न तो आधार आकर लिया और न ही विकास के पथ पर प्रगतिशील होने की उत्कंठा ही उतपन्न हो सकी। लेकिन समय रहते मार्क्स के चिंतन से अलग अम्बेडकर के चिंतन से दलितों ने अपने को जोड़ा और सम्भावना का संसार इतिहास बोध में तब्दील हुआ।
और समझा कि दलित चेतना का विकास कोसने में नहीं कुशलता से खुद के इतिहास निर्मिति में है। यही कारण रहा कि दलित साहित्य सिर्फ विकसित ही नहीं हुआ बल्कि प्रतिरोधी शक्तियों को अपने सारे हथियारों को रगड़ना पड़ा। साफ करना पड़ा कि कहीं ऐसा न हो कि हमारा हथियार जब हमारे ऊपर ही रखा जाएगा, गड़ाया जाएगा तो धनुस्तम्भ रोग की संभावना से बचा जा सके।जितना सशक्त इतिहास बोध स्वतंत्र रूप से दलितों में विकसित हुआ उतना तो पिछड़ों में भी नहीं हुआ। इसका कारण रहा कि दलित सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में कड़े निर्णय लेते गए।
कौमीय विभीषण को जाति के आधार पर नहीं बल्कि भेद-विभेद विषयक कर्म पर ‘न्यायार्थ अपने बन्धु को दंड देना धर्म है’ को कड़े रूप में अमल में लाया गया। बिना इसकी परवाह किए की हम शासन-सत्ता में रहें या न रहें लेकिन मिशन को इस बात की परमिशन नहीं है कि जहां खड़े हैं वहीं छीछालेदर करें। रही पिछड़ा समाज की बात तो आज पिछड़ा समाज में चिन्तन कम चतुराई पर अधिक जोर है। जातीय बोध अधिक है मगर इतिहास बोध कम है।
सनातनी व्यवस्था के प्रति लड़ाई सिर्फ राजनीतिक है सामाजिक व धार्मिक है ही नहीं है। अब आप चाहते हैं उस व्यवस्था को कुंद करना तो शायद यह नासमझी का परिणाम है। जाति एक बुराई है और यह खास और उच्च व्यवस्था की देन है जिसके आधार पर उन्हें हम कोसते हैं, लड़ते हैं मगर जाति के अंदर जाति के लिए जिम्मेदार कौन है? उसे खत्म करने का साहस जाति के नेता में है? यथावत बरकरार उप जाति को समाप्त करने में कितने सामर्थ्यवान हैं?आंतरिक विसंगति को स्वयं बनाये हुए हैं। दरअसल हमने कभी न तो ठीक से कोई सुनियोजित लड़ाई लड़ी और न ही आंतरिक रूप से सशक्त हुए। सड़क जाम कर देना, तहसील घेर लेना, जूतम-पैजार करना यह वास्तविक लड़ाई है ही नहीं।
ऐसा वातावरण विकसित कर इतिहास बोध और ऐतिहासिक विरासत से विरत करना एक संघी विजय है। समाजवादी आंदोलन पर बहुत बल दिया गया पर इसकी बुनियाद और इसके आधार पर अवधारित समाज की चेतना और समस्या पर कभी विचार नहीं किया गया। क्या समाजवाद का लक्ष्य बहुजनवाद के मुकाबले कारगर है? या बहुजन की व्यापकता को समझने में दलित और पिछड़ा वर्ग से नासमझी हुई है।दरअसल ये दोनों शब्द राजनीतिक हैं और दोनों शब्दों का लक्ष्य राजनीतिक विजय है न कि सामाजिक। सवाल अस्मिता का है जो पूर्णतया सामाजिक है। इतिहास निर्मित सामाजिक रिफॉर्म की बुनियाद से ही सुनिश्चित होती है। मग़र लोग अपनी-अपनी जाति में अंध श्रद्धा से नत हो गए हैं।
वर्गीय चेतना चित्त हो गयी है। जाति का भाप तकनीकि के दौर में उबाल मार रहा है। लोग जातीय तौर पर तमाम समूहों का हिस्सा बन रहे हैं। एक जाति विशेष के लोग तमाम स्तरीकृत लोगों को जाति रूपी चुम्बक से चिपकाते जा रहे हैं। जिस भावना का वितान वर्तमान में आसमान छू रहा है उसमें तारे कम तरकीब के जुगनू ज्यादा टिमटिमा रहे हैं।जीत की भावना कम जाति की भावना प्रबल है। राष्ट की भावना नहीं राजनीति की भावना है। इसी कमी की वजह से दलित पिछड़े सामाजिक मुद्दे पर एक होते तो दिखते हैं मगर सामूहिक लड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि इतिहास बोध से दूर हैं।पढ़ते कम हैं गढ़ते ज्यादा हैं।
रक्षात्मक व स्वतंत्र चिंतन से किसी लड़ाई को ऐतिहासिक बनाया जा सकता है। जिस लड़ाई को अम्बेडकर, फुले, पेरियार, साहू, लोहिया, ललई, मंडल और अन्य सामाजिक धरातल को फोड़ कर निकले जनवादी सुधारक लड़ रहे थे वह फड़फड़ाते तो दलित-पिछड़ा वर्ग अपने अस्तित्व मूलक इतिहास से भी हाथ धो बैठते। उनके आदोंलन को एक सूत्र में न पिरो कर हम जाति के नाम पर खुदकुशी कर बैठे हैं। मुगालते में हैं कि हम जिम्मेदार को ऐतिहासिक रुप से स्थान्तरित कर देंगे। विद्वान हैं कि अब जातीय तोप बन चुके हैं। अब अपनी ही जाति/उप-जाति में भी खटक रहे हैं भले ही वाट्सअप और फेसबुक जैसे जातीय समूह में रजिस्टर्ड हैं। क्योंकि इतिहास बोध से अलग जाति बोध के लिए जी-जान लगा चुके हैं और खुद की अधिकांश कौम बोध से अलग बुध्धू बनी हुई है।
प्रो. अखिलेश कुमार (प्राध्यापक)
राजकीय महिला महाविद्यालय
शाहगंज- जौनपुर