इबादत, मगफिरत और मदद का महीना है रमजान
राजकुमार अश्क
तहलका 24×7
माह-ए-रमजा़न का आगाज होते ही हर मुसलमान खुदा की इबादत में अपने आपको मशगूल कर लेता है। कहा जाता है इस पाक महीने में की गई इबादत खुदा जरूर कुबूल करता है। इस मुकद्दस महीने में की गई दान कई गुना ज्यादा होकर वाले के पास आती है। पूरी कायनात के सभी धर्म एक ही बात कहते हैं कि गरीबों, मजबूरों, मुफलिसी में जी रहे लोगों की मदद करने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है। कोई दूसरी इबादत नही है। इसी दान देने बात को इस्लाम धर्म में ज़कात के नाम से जाना जाता है।
वैसे तो ज़कात शब्द का जिक्र कुरान में 33 बार आया है, और इस शब्द का प्रयोग अधिकतर नमाज़ के बाद किया गया है।ज़कात शब्द का अर्थ होता है पवित्र करना पाक करना या शुध्द करना। इस्लाम धर्म के अनुसार पांच मूल स्तम्भ होतें हैं। जिनमें से ज़कात भी एक है। ज़कात अदा करना हर मुसलमान के लिए ज़रूरी होता है। शरीयत के अनुसार ज़कात उस माल को कहते हैं जिसे इंसान अल्लाह के दिए हुए माल में से उसके हकदाऱो को देता है।शरीयत के अनुसार हर मुसलमान को अपनी आमदनी का ढाई फीसदी हिस्सा गरीबों को दान देना चाहिए।
धार्मिक ग्रन्थ कुर्आन करीम के अनुसार रमज़ान के महीने में की गई ख़ुदा की इबादत तभी कबूल होती है जब ज़कात अदा की जाती है। मान्यता के अनुसार व्यक्ति रमज़ान के महीने में जितना ज्यादा जका़त निकालता है खुदा उसको उतना ही बरकत देता है। लेकिन जका़त तभी कबूल होती है जब वह मेहनत की कमाई से की जाती है। जका़त का एक नियम होता है कि परिवार के जितने भी सदस्य कमाते हैं उन सब का जका़त देना जरुरी होता है। जका़त पर सबसे पहला हक अपने परिवार के भाई बंधुओं का होता है, जो अपना जीवन मुफ़लिसी में गुजार रहे हैं। उसके बाद पड़ोसी, विधवा औरत, अनाथ बच्चों, बीमार व कमजोर आदमी का या किसी भी जरूरतमंद का जो गरीब, लाचार हो। ज़कात को मस्जिदों में भी दिया जा सकता जहां दीन का इल्म दिया जाता है।
बहुत से लोगों को लगता है कि जका़त फितरा और सदका एक ही है, जबकि इनमें बुनियादी तौर पर अंतर है। क्योंकि जका़त इस्लाम की पांच बुनियादों में से एक है जिसे हर मुसलमान को अपनी आमदनी का 2.5 फीसदी देना लाजमी होता है।