भाजपा के लिए पूर्वोत्तर से सुहानी बयार
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम कहीं से भी चौंकाने वाले नहीं हैं। देश के अधिकांश हिस्सों वाला फॉर्मूला यहां भी फिट दिख रहा है। यहां के राज्यों में भाजपा की सीटें कम या ज्यादा भले हों, मत प्रतिशत में भी थोड़ा ऊपर नीचे हो जाए लेकिन पूर्वोत्तर में अब पार्टी स्थापित हो चुकी है। इसके ठीक उलट कभी पूर्वोत्तर में पूरी तरह हावी कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। 2024 के लिहाज से यहां नतीजों ने एनडीए को राहत भी दी और अपनी आगामी रणनीति के लिए सजग भी कर दिया ।
चुनाव परिणाम बताते हैं कि पूर्वोत्तर में मतदाता तृणमूल कांग्रेस को सियासी ताकत देने के मूड में नहीं है। इसके अलावा यह भी साफ हुआ कि वाम दलों को यहां पुनर्वापसी के लिए अभी और भी मेहनत करनी होगी। त्रिपुरा में लेफ्ट और कांग्रेस मिलकर भी भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं कर पाई। यह दोनों पार्टियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए ।
पूर्वोत्तर के परिणाम राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी विश्लेषित किए जा रहे हैं। क्योंकि लोकसभा चुनाव में यहां के समीकरण राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करने वाले और सरकार बनाने के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। त्रिपुरा के परिणामों पर वैसे भी देश भर की नजर थी क्योंकि यह पहला राज्य था, जहां भाजपा ने अपनी विपरीत विचारधारा यानी वाम दलों को हराया था। हालांकि आंतरिक असंतोष और नीतिगत विरोध के चलते पार्टी को 4 साल में सीएम बदलना पड़ा। इसका फायदा भी मिला और असंतोष कम हुआ, जिसका असर परिणामों में दिखाई दिया।
सीटें और मत प्रतिशत कम होने के बावजूद भाजपा खुद की बदौलत विधानसभा में बहुमत में है। स्थानीय आईपीपी से उसका गठजोड़ कायम रहा। गठजोड़ कांग्रेस और वाममोर्चा का भी हुआ लेकिन यह नेताओं के स्तर तक सीमित रहा और समर्थकों व कार्यकर्ताओं तक नहीं पहुंच सका। चूंकि कभी राज्य में कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच संघर्ष की स्थिति रहती थी। इसी वजह से भी दोनों दलों के समर्थकों के बीच तालमेल नहीं बन पाया। इससे एक बात को बल मिलता है कि एंटी बीजेपी एजेंडे पर अगर विपक्षी पार्टियों में गठबंधन हो भी जाए तो जरूरी नहीं कि उसे जनता या उक्त पार्टी के कार्यकर्ता स्वीकार करें। यह वो बिंदु है, जिससे 2024 के लोकसभा चुनाव के समीकरण भी प्रभावित होंगे।
नागालैंड में भी भाजपा का प्रदर्शन आलाकमान के लिए संतोषजनक माना जा सकता है। यहां पार्टी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ लड़ रही थी। महज 20 सीटों पर लड़ने और गठबंधन में कनिष्ठ होने के बावजूद पार्टी की चुनाव के प्रति गंभीरता और स्थानीय इकाइयों में सामंजस्य बेजोड़ था। पीएम, गृहमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी पूरा जोर लगाया और प्रचार करने पहुंचे। चूंकि एक राष्ट्रीय पार्टी अब सरकार में है और उसके अन्य दलों के साथ अच्छे संपर्क हैं इसलिए एक आशा शांति प्रक्रिया को मजबूती मिलने की भी है।
इन दोनों राज्यों के मुकाबले मेघालय में चुनाव परिणाम भाजपा के लिए उतना सही नहीं रहा। उसे स्वयं बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद थी। भाजपा के लिए संतोष की बात रही कि सरकार उसके सहयोग से बनी और तृणमूल मेघालय में ज्यादा मजबूती से पैर नहीं जमा पाई।
भाजपा की इस कामयाबी का श्रेय पूर्वोत्तर पर नरेंद्र मोदी के विशेष फोकस को दिया जा सकता है। पार्टी और उसके नेताओं ने अलगाववाद और क्षेत्रीयता के भाव को भारतीय राष्ट्रवाद के साथ जोड़ने की कोशिश की थी जिसका उन्हें फल भी मिला। पूर्वोत्तर हाल के वर्षों में यातायात और संचार के क्षेत्र में जबरदस्त क्रांति का गवाह रहा है। बिजली और शिक्षा के क्षेत्र में भी यहां उल्लेखनीय काम हुआ। आठ हजार से ज्यादा उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण किया। अफस्पा को लेकर भाजपा के आक्रामक रुख ने भी लोगों का रुझान उसकी तरफ मोड़ने का काम किया। लोगों ने शांति और स्थिरता के साथ साथ भयमुक्त स्वतंत्र वातावरण के लिए भाजपा पर विश्वास जताना शुरू किया है। निश्चित तौर पर ये सारी वजहें लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में सरप्लस करेंगी।