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Wednesday, April 24, 2024

महापर्व छठ का पौराणिक, आध्यात्मिक महत्व एंव वैज्ञानिक पहलु पर तहलका 24×7 विशेष… 

महापर्व छठ का पौराणिक, आध्यात्मिक महत्व एंव वैज्ञानिक पहलु पर तहलका 24×7 विशेष… 

स्पेशल डेस्क। 
राजकुमार अश्क 
तहलका 24×7
              सर्वप्रथम सभी माताओं एवं बहनों को तहलका 24×7 परिवार की तरफ से छठ पूजा की ढेरों शुभकामनाएं एवं बहुत बहुत बधाई… आप के जीवन का हर पल सुखमय हो। सनातन धर्म में व्रत, पर्व तीज त्योहार का आध्यात्मिक महत्व के साथ साथ धार्मिक, वैज्ञानिक महत्व तो होता ही है, उनका एक इतिहास भी होता है।हमारे मनीषियों ने हजारों वर्ष पहले ही प्रकृति की शक्ति को पहचान कर उसे पूज्यनीय बना दिया था। सनातन धर्म से सम्बन्धित कोई भी ऐसा कर्मकांड नहीं है जिसमें प्रकृति की उपासना न की जाती हो और उसके पीछे विज्ञान न हो।
सूर्य उपासना से जुड़े व्रत षष्ठी पूजा या छठी मईया के व्रत का भी अपना एक अलग ही इतिहास और महत्व है। यही एक ऐसा व्रत है जिसमें पहले अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना की जाती तत्पश्चात उदयांचल सूर्य की उपासना होती है। यह व्रत अत्यंत ही फलदायी माना जाता है इसे पवित्र मन वचन क्रम से करने की बात वेदों और पुराणों में कही गई है। इस व्रत को करने से संतान की आयु लम्बी तथा घर मे सुख शान्ति समृद्धि आती है।
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इस व्रत  को करने का विधान है। इस व्रत को सबसे कठिन व्रतों में गिना जाता है क्योंकि इस व्रत को करने वाले को निर्जल बिना कुछ खाए पिए 36 घंटे तक रहना पड़ता है। इस व्रत को स्त्री तथा पुरूष दोनों समान रूप से रह सकते है। इस व्रत की शुरूआत शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को खाय नहाय के किया जाता है तथा इसका पारन यानि मुख्य पूजा (समापन) सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य  देने के पश्चात होता है।
आईये इससे सम्बंधित पौराणिक आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व एवं इसके इतिहास पर प्रकाश डालते है। पौराणिक कथा के अनुसार इस व्रत मे मुख्य रूप से ॠषियो द्वारा लिखी गई पुस्तक ॠगवेद मे सूर्य पूजन, ऊषा पूजन का वर्णन किया गया है। इस व्रत मे वैदिक आर्य समाज की संस्कृति तथा सभ्यता की झलक देखने को मिलती है इस पर्व को भगवान सूर्य, ऊषा, प्रकृति, जल, वायू आदि को समर्पित किया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से बिहार का पर्व माना जाता है मगर बिहार के लोगों का अन्य देशों व प्रदेशो मे रहने के कारण अब यह पर्व सिर्फ बिहार मे ही नहीं बल्कि समस्त भारत के साथ साथ विश्व के अनेक देशो मे भी बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार प्रियवद नामक एक बहुत ही प्रतापी राजा हुए इनके पिता का नाम स्वायम्भुव मनु था।राजा प्रियवद योगराज थे उनका मन ध्यान तथा साधना में अधिक लगता था जिस कारण वो विवाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन ब्रह्माजी की आज्ञा तथा उनके प्रयत्न से प्रियवद ने विवाह कर लिया मगर काफी समय व्यतीत होने पर भी राजा के कोई संतान नही हुई जिस कारण राजा और रानी बड़े उदास रहने लगे।
कश्यप ॠषि के कहने पर राजा ने संतान प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान कराया, यज्ञ के पश्चात आहुति के लिए बनायी गयी खीर को कश्यप ॠषि ने प्रियवद की रानी मालिनी को प्रसाद स्वरूप खाने को दिया जिससे उन्हे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई मगर दुर्भाग्य वश वह संतान मृत पैदा हूई। इस घटना से राजा एवं रानी अत्यन्त द्रवित होकर अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान की तरफ चल दिए और स्वयं भी पुत्र वियोग मे अपने प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया।
पौराणिक कथा के अनुसार उसी समय ब्रह्मा जी की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और राजा को ऐसा न करने को कह कर स्वयं की पूजा करने के विधि को बताया।चूंकि यह दैवी सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई है इसी कारण इस व्रत को षष्ठी या छठी मईया भी कहते है। राजा ने छठी मईया के कहे अनुसार पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इस व्रत को पूरे विधि विधान से और सच्चे मन से किया जिससे उन्हे एक पुत्र रत्न की पुनः प्राप्ति हुई।
इस व्रत का सम्बन्ध महाभारत काल से भी है ऐसी मान्यता पौराणिक कथाओ मे देखने को मिलती है। महाभारत कथा के अनुसार कर्ण को सूर्य का पुत्र माना जाता है।इस व्रत की शुरुआत भी कर्ण के द्वारा ही की गई थी, ऐसी मान्यता है। कर्ण प्रतिदिन घन्टों कमर तक पानी मे खड़े होकर अपने पिता सूर्य की उपासना किया करते थे और उनको अर्घ्य दिया करते थे। अपने पिता सूर्य की कृपा से ही कर्ण बलशाली एवं वीर योद्धा बन सके थे। तब से लेकर आजतक कमर बराबर पानी मे खड़े होकर उगते सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा चली आ रही है।
इसी काल से जुड़ी एक अन्य घटना का उल्लेख भी प्राचीन कथाओं मे मिलता है। कहा जाता है कि जिस समय कौरवों के छल के कारण पांडव जूए मे अपना सारा राज पाट हार कर वन वन भटकने को मजबूर हो गए थे तब द्रोपदी ने इस व्रत को किया था जिससे उनका छिना हुआ राजपाट वापस मिल गया था। लोक प्रचलित मान्यताओ के अनुसार सूर्य देव एवं छठी  मइया भाई-बहन है जिस कारण इस व्रत मे इन दोनो  (सूर्य एवं छठी मइया) की उपासना एक साथ की जाती है

# छठ पर्व का वैज्ञानिक आधार

जैसा कि हमने पहले ही इस बात का उल्लेख कर दिया था कि हिन्दू धर्म से जुड़े जितने भी व्रत या त्योहार होतें है वह सब प्रकृति पूजा एवं विज्ञान पर आधारित होतें है, तो छठ पूजा का भी वैज्ञानिक आधार है। छठ पूजा महज़ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, इसके पीछे पूरा विज्ञान छिपा है चूॅकि यह व्रत लगातार तीन दिन का होता है इसलिए व्रत करने वाले को मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैयार होना पड़ता है, इसमें जिन खाद्य पदार्थों का प्रयोग किया जाता है वह शरद ऋतु के अनुरूप होते है, चतुर्थ तिथि को लौकी और भात खाने की परम्परा है जिससे शरीर व्रत के लिए पूरी तरह सात्विक रूप से तैयार हो सकें, पंचमी तिथि को प्रकृति द्वारा प्रदान किए गये शुद्ध गन्ने के रस से बनी हुई खीर खाने से शरीर में पर्याप्त मात्रा में ग्लूकोज़ का संग्रहण हो जाता है।
इसी प्रकार इस व्रत में जितने भी प्रसाद बनाए जाते हैं वह सभी कैल्शियम, आयरन, विटामिन, वसा से भरपूर होतें हैं जो उपवास के दौरान कम हुई न्यूट्रिशन को पूरा करते हैं। विज्ञान कहता है कि विटामिन डी का सबसे मुख्य और मुफ़्त स्रोत डूबते एवं उगते सूरज की किरणें होती है और अर्ध्य देने का समय भी यही होता है। सूर्य को अर्ध्य देने के पीछे भी विज्ञान छिपा है, इंसान के शरीर में रंगों का बहुत बड़ा महत्व होता है, रंगों के संतुलन बिगड़ने से मानव कई बिमारियों का शिकार हो जाता है, यहाँ पर प्रिज्म का सिद्धांत यह कहता है कि यदि उगते सूर्य को जल चढ़ाया जाए तो शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
छठी के दिन एक विशेष खगोलीय घटना भी होती है इस दिन सूर्य की पराबैंगनी किरणों का संतुलन भी असमान्य रहता है इससे बचने के लिए डुबते एवं उगते सूर्य को अर्ध्य देने की परम्परा बनाई गई। सूर्य की किरणों में तमाम तरह के त्वचा रोगों से लड़़ने की भी क्षमता होती है। सही मायने में यदि यह कहा जाए कि यह व्रत अत्यंत ही फलदायी होने के साथ साथ अत्यंत ही शारीरिक एवं मानसिक रूप से लाभकारी है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

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